एकाकीपन भी तो न मिला।
मैंने समझा था संगरहित
जीवन के पथ पर जाता हूँ,
मेरे प्रति पद की गति-विधि को जग देख रहा था खोल नयन।
एकाकीपन भी तो न मिला।
मैं अपने कमरे के अंदर
कुछ अपने मन की करता था,
दर-दीवारें चुपके-चुपके देती थीं जग को आमंत्रण
एकाकीपन भी तो न मिला।
मैं अपने मानस के भीतर
था व्यस्त मनन में, चिंतन में,
साँसें जग से कह आती थीं मेरे अंतर का द्वन्द-दहन।
एकाकीपन भी तो न मिला।