कह रही है पेड़ की हर शाख़, अब तुम आ रहे अपने बसेरे।
आज दक्खिन की हवा ने आ अचानक
द्वार मेरे खड़खड़ाए,
हलचली है मच गई उन बादलों में
जो कि थे आकाश छाए,
जो कि सुन सौ प्रश्न मेरे चुप खड़ी थी
आज बारंबार झुक-झुक
कह रही है पेड़ की हर शाख़, अब तुम आ रहे अपने बसेरे।
सूर्य की किरणें प्रखरतम घन तहों के
बीच होतीं, पार करतीं,
कालिमा पर ज्योति का विस्तार करतीं
चूमतीं जैसे कि धरती,
हे रजत पक्षी, तिमिर को भेदने से,
जो तुम्हारी राह छेके,
अब नहीं रुकते तुम्हारे पाँख, अब तुम आ रहे अपने बसेरे।
कह रही है पेड़ की हर शाख़, अब तुम आ रहे अपने बसेरे।