मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय, तुम आते, तब क्या होता।
मौन रात इस भाँति कि जैसे
कोई गत वीणा पर बजकर
अभी-अभी सोई खोई-सी
सपनों में तारों पर सिर धर,
और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ
जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,
कान तुम्हारी तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता।
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय, तुम आते, तब क्या होता।
उत्सुकता की अकुलाहट में
मैंने पलक पाँवड़े डाले
अंबर तो मशहूर कि सब दिन
रहता अपना होश सँभाले,
तारों की महफ़िल ने अपनी
आँख बिछा दी किस आशा से,
मेरी भग्न कुटी को आते तुम दिख जाते, तब क्या होता।
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी, प्रिय, तुम आते, तब क्या होता।