एक दीप बाले तुम बैठीं, एक दीप बाले मैं बैठा।
ज्योति ज्योति की ओर चला
करती है त्रिभुवन के कोनों से,
ऐसा क्या अँधियाला है जो
कट न सकेगा हम दोनों से,
दो लौ मिलकर लपट नहीं,
अंगार नहीं, बिजली बनती है,
एक दीप बाले तुम बैठीं, एक दीप बाले मैं बैठा।
बड़भागी है दर्द बसाए
रह सकता है जिसका अंतर,
जो इससे वंचित हैं उनको
फूँको फूस चिता पर धरकर,
दुख की मारी दुनिया को ये
क्या समझेंगे, समझाएँगें,
एक पीर पाले तुम बैठीं, एक पीर पाले मैं बैठा।
एक दीप बाले तुम बैठीं, एक दीप बाले मैं बैठा।