सुमुखि, कभी क्या मेरे जीवन के भी ऐसे दिन आएँगे?
जैसे इस गिरि की गोदी में
एक बसा है नगर निराला,
घर, छप्पर, छत, बाग-बगीचों,
गढ़, गुंबद, मीनारों वाला,
मानचित्र सा मेरे आगे
मानव का उर फैला होगा,
सुमुखि, कभी क्या मेरे जीवन के भी ऐसे दिन आएँगे?
जैसे इस सागर के अंदर
बिंबित है सारा नभ-मंडल,
तारों की आँखों का झँपना,
किरणों का मुस्काना, बादल,
बिजली, तूफ़ानों की हलचल,
क्या मेरे भी अंतस्तल में
मानव के सुख, सूनेपन, दुख, दर्द कभी घर कर जाएँगें?
सुमुखि, कभी क्या मेरे जीवन के भी ऐसे दिन आएँगे?