राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है
राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है| बीत गया युग एक तुम्हारे मंदिर की डयोढ़ी पर गाते, पर अंतर के तार बहुत-से, शब्द नहीं झंकृत कर पाते, एक गीत का अंत दूसरे का आरंभ हुआ करता है, राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है| अपने मन को जाहिर करने का दुनिया में बहुत बहाना, किंतु किसी में माहिर होना, हाय, न मैंने अब तक जाना, जब-जब मेरे उर में, सुर में द्वंद हुआ है, मैंने देखा, उर विजयी होता, सुर के सिर हार मढ़ी ही रह जाती है। राग उतर फिर-फिर जाता है, बीन चढ़ी ही रह जाती है|

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