देश-विभाजन-२
दिखे अगर कभी मकान में झरन, सयत्न मूँदते उसे प्रवीण जन, निचिंत बैठना बड़ा गँवारपन, कि जब समस्त देश में दरार हो। रहे न साथ एक साथ जब रहे, अलग, विरुद्ध पंथ आज तो गहे, यही मिलाप है कि राम मुँह कहे, मगर बग़ल छिपी हुई कटार हो। सुदूर शत्रु सेन साजने लगा, पड़ोस-का फ़िराक में कि दे दग़ा, कहीं अचेत ही न जाय तू ठगा, समय रहे स्वदेश होशियार हो।

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