क्रांति दीप
पच्छिम से घन अंधकार ले उतर पड़ी है काली रात, कहती, मेरा राज अकंटक होता जब तक नहीं प्रभात। एक झोंपड़ी में उठती है एक दिए की मद्धिम जोत— अग्नि वंश की सब संतानें, सूरज हो, चाहे खद्योत। अग्नि वंश की आन यही है और यही उसका इतिहास, कितना ही तम हो, मत जाने पाए ज्वाला में विश्वास। एक दिए से मिटा अँधेरा कितना, इस पर व्यर्थ विचार, मैंने तो केवल यह देखा नहीं विभा ने मानी हार। दूर अभी किरणों की बेला, दूर अभी ऊषा का द्वार, बाड़व-दीपक शीश उठाता कँपता तम का पारावार। हर दीपक में द्रव विस्फोटक हर दीपक द्युति की ललकार, हर बत्ती विद्रोह पताका, हर लौ विप्लव की हुंकार।

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