था उचित कि गाँधी जी की निर्मम हत्‍या पर
था उचित कि गाँधी जी की निर्मम हत्‍या पर तारे छिप जाते, काला हो जाता अंबर, केवल कलंक अवशिष्‍ट चंद्रमा रह जाता, कुछ और नज़ारा था जब ऊपर गई नज़र। अंबर में एक प्रतीक्षा को कौतूहल था, तारों का आनन पहले से भी उज्‍ज्‍वल था, वे पंथ किसी का जैसे ज्‍योतित करते हों, नभ वात किसी के स्‍वागत में फिर चंचल था। उस महाशोक में भी मन में अभिमान हुआ, धरती के ऊपर कुछ ऐसा बलिदान हुआ, प्रतिफलित हुआ धरणी के तप से कुछ ऐसा, जिसका अमरों के आँगन में सम्‍मान हुआ। अवनी गौरव से अंकित हों नभ के लिखे, क्‍या लिए देवताओं ने ही यश के ठेके, अवतार स्‍वर्ग का ही पृथ्‍वी ने जाना है, पृथ्‍वी का अभ्‍युत्‍थान स्‍वर्ग भी तो देखे!

Read Next