जीवन की आपाधापी में
जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं, जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या। जिस दिन मेरी चेतना जगी मैनें देखा, मैं खड़ा हुआ हूँ दुनिया के इस मेले में, हर एक यहां पर एक भुलावे में भूला, हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में, कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौंचक्का सा, आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जगह? फ़िर एक तरफ़ से आया ही तो धक्का सा, मैनें भी बहना शुरु किया उस रेले में, क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी, जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा, जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी, जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला, जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ, जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या। मेला जितना भडकीला रंग-रंगीला था, मानस के अंदर उतनी ही कमज़ोरी थी, जितना ज़्यादा संचित करने की ख्वाहिश थी, उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी, जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा, उतना ही रेले तेज़ ढकेले जाते थे, क्रय-विक्रय तो ठंडे दिल से हो सकता है, यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी; अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊं, क्या मान अकिंचन पथ पर बिखरता आया, वह कौन रतन अनमोल मिला मुझको जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया, यह थी तकदीरी बात, मुझे गुण-दोष ना दो जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली, जिसको समझा था आंसू, वह मोती निकला जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं, जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या। मैं कितना ही भूलूं, भटकूं या भरमाऊं, है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है, कितने ही मेरे पांव पड़ें, ऊंचे-नीचे, प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है, मुझ पर विधि का आभार बहुत सी बातों का, पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा - नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले, अनवरत समय की चक्की चलती जाती है, मैं जहां खडा था कल, उस थल पर आज नही, कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है, ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं, वे छू कर ही काल-देश की सीमाएं, जग दे मुझ पर फ़ैसला जैसा उसे भाए, लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के, इस एक और पहलू से होकर निकल चला, जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं, जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या।

Read Next