अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!
कहती है ऊषा की पहली
किरण लिए मुस्कान सुनहली—
नहीं दमकती दामिनि का ही, मेरा भी अस्तित्व यहाँ है!
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!
कहता एक बूँद आँसू झर
पलक-पाँखुरी से पल्लव पर—
नहीं मेह की लहरों का ही, मेरा भी अस्तित्व यहाँ है!
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!
टहनी पर बैठी गौरैया
चहक-चहककर कहती, भैया—
नहीं कड़कते बादल का ही, मेरा भी अस्तित्व यहाँ है!
अब घन-गर्जन-गान कहाँ हैं!