साथी, सांझ लगी अब होने
साथी, सांझ लगी अब होने! फैलाया था जिन्हें गगन में, विस्तृत वसुधा के कण-कण में, उन किरणों को अस्तांचल पर पहँच लगा है सूर्य सँजोने! साथी, सांझ लगी अब होने! खेल रही थी धूलि कणों में, लोट लिपट तरु-गृह-चरणों में, वह छाया, देखो, जाती है प्राची में अपने को खोने! साथी, सांझ लगी अब होने! मिट्टी से था जिन्हें बनाया, फूलों से था जिन्हें सजाया, खेल घिरौंदे छोड़ पथों पर चले गये हैं बच्चे सोने! साथी, सांझ लगी अब होने!

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