श्यामा तरु पर बोलने लगी!
है अभी पहर भर शेष रात,
है पड़ी भूमि हो शिथिल-गात,
यह कौन ओस जल में सहसा मिश्री के कण घोलने लगी!
श्यामा तरु पर बोलने लगी!
दिग्वधुओं का मुख तमाच्छ्न्न,
अब अस्फुट आभा से प्रसन्न,
यह कौन उषा का अवगुंठन गा-गा करके खोलने लगी!
श्यामा तरु पर बोलने लगी!
अधरों के नीचे लेजाकर
इसने रक्खा क्या पेय प्रखर,
जिसको छूते ही सकल प्रकृति हो सजग चपल डोलने लगी!
श्यामा तरु पर बोलने लगी!