तबीअत इन दिनों बेगाना-ए-ग़म होती जाती है
तबीअत इन दिनों बेगाना-ए-ग़म होती जाती है मिरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है सहर होने को है बेदार शबनम होती जाती है ख़ुशी मंजुमला-ओ-अस्बाब-ए-मातम होती जाती है क़यामत क्या ये ऐ हुस्न-ए-दो-आलम होती जाती है कि महफ़िल तो वही है दिल-कशी कम होती जाती है वही मय-ख़ाना-ओ-सहबा वही साग़र वही शीशा मगर आवाज़-ए-नोशा-नोश मद्धम होती जाती है वही हैं शाहिद-ओ-साक़ी मगर दिल बुझता जाता है वही है शम्अ लेकिन रौशनी कम होती जाती है वही शोरिश है लेकिन जैसे मौज-ए-तह-नशीं कोई वही दिल है मगर आवाज़ मद्धम होती जाती है वही है ज़िंदगी लेकिन 'जिगर' ये हाल है अपना कि जैसे ज़िंदगी से ज़िंदगी कम होती जाती है

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