मोहब्बत में ये क्या मक़ाम आ रहे हैं
मोहब्बत में ये क्या मक़ाम आ रहे हैं कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं ये कह कह के हम दिल को बहला रहे हैं वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं वो अज़-ख़ुद ही नादिम हुए जा रहे हैं ख़ुदा जाने क्या क्या ख़याल आ रहे हैं हमारे ही दिल से मज़े उन के पूछो वो धोके जो दानिस्ता हम खा रहे हैं जफ़ा करने वालों को क्या हो गया है वफ़ा कर के भी हम तो शर्मा रहे हैं वो आलम है अब यारो अग़्यार कैसे हमीं अपने दुश्मन हुए जा रहे हैं मिज़ाज-ए-गिरामी की हो ख़ैर या-रब कई दिन से अक्सर वो याद आ रहे हैं

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