कमरे में धूप
हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही, दीवारें सुनती रहीं। धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही। सहसा किसी बात पर बिगड़ कर हवा ने दरवाज़े को तड़ से एक थप्पड़ जड़ दिया ! खिड़कियाँ गरज उठीं, अख़बार उठ कर खड़ा हो गया, किताबें मुँह बाये देखती रहीं, पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी, मेज़ के हाथ से क़लम छूट पड़ी। धूप उठी और बिना कुछ कहे कमरे से बाहर चली गई। शाम को लौटी तो देखा एक कुहराम के बाद घर में ख़ामोशी थी। अँगड़ाई लेकर पलँग पर पड़ गई, पड़े-पड़े कुछ सोचती रही, सोचते-सोचते न जाने कब सो गई, आँख खुली तो देखा सुबह हो गई।

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