बात सीधी थी पर
बात सीधी थी पर एक बार भाषा के चक्कर में ज़रा टेढ़ी फँस गई। उसे पाने की कोशिश में भाषा को उलटा पलटा तोड़ा मरोड़ा घुमाया फिराया कि बात या तो बने या फिर भाषा से बाहर आये- लेकिन इससे भाषा के साथ साथ बात और भी पेचीदा होती चली गई। सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना मैं पेंच को खोलने के बजाय उसे बेतरह कसता चला जा रहा था क्यों कि इस करतब पर मुझे साफ़ सुनायी दे रही थी तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह। आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था – ज़ोर ज़बरदस्ती से बात की चूड़ी मर गई और वह भाषा में बेकार घूमने लगी। हार कर मैंने उसे कील की तरह उसी जगह ठोंक दिया। ऊपर से ठीकठाक पर अन्दर से न तो उसमें कसाव था न ताक़त। बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह मुझसे खेल रही थी, मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा – “क्या तुमने भाषा को सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा ?”

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