एक यात्रा के दौरान / आठ
शायद मैं ऊँघ कर लुढ़क गया था एक स्वप्न में - एक प्राचीन शिलालेख के अधमिटे अक्षर पढ़ते हुए चकित हूँ कि इतना सब समय कैसे समा गया दो ही तारीख़ों के बीच कैसे अट गया एक ही पट पर एक जन्म एक विवरण एक मृत्यु और वह एक उपदेश-से दिखते अमूर्त अछोर आकाश का अटूट विस्तार जिसमे न कहीं किसी तरफ़ ले जाते रास्ते न कहीं किसी तरफ़ बुलाते संकेत, केवल एक अदृश्य हाथ अपने ही लिखे को कभी कहता स्वप्न कभी कहता संसार...... अचानक वह ट्रेन जिसमें रखा हुआ था मैं और खिलौने की तरह छोटी हो गई, और एक बच्चे की हथेलियाँ इतनी बड़ी कि उस पर रेल-रेल खेलने लगे फ़ासले बना कर छोटे बड़े घर, पहाड़, मैदान, नदी, नाले ..... उसकी क़लाई में बंधी पृथ्वी अकस्मात् बज उठी जैसे घुँघरू रेल की सीटी .....

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