एक यात्रा के दौरान / एक
सफ़र से पहले अकसर रेल-सी लम्बी एक सरसराहट मेरी रीढ़ पर रेंग जाया करती है। याद आने लगते कुछ बढ़ते फ़ासले- जैसे जनता और सरकार के बीच, जैसे उसूलों और व्यवहार के बीच, जैसे सम्पत्ति और विपत्ति के बीच, जैसे गति और प्रगति के बीच घेरने लगती कुछ असह्य नज़दीकियाँ- जैसे दृढ़ता और विचलन के बीच, जैसे तेज़ी और फिसलन के बीच, जैसे सफ़ाई और गन्दगी के बीच, जैसे मौत और जिन्दगी के बीच। याद आते छोटे-छोटे स्टेशनों पर फैले बीमार रोशनी के मैले मरियल उजाले, गाड़ी छूटने का बौखलाहट–भरा वक़्त, आरक्षण-चार्ट की अन्तिम कार्बन-कापी, याद आती ट्रेन के इस छोर से उस छोर तक बदहवास दौड़ती जनता अपने बीवी, बच्चों, सामान, कुली और जेब को एक साथ संभाले....

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