पूर्वाभास
ओ मस्तक विराट, अभी नहीं मुकुट और अलंकार। अभी नहीं तिलक और राज्यभार। तेजस्वी चिन्तित ललाट। दो मुझको सदियों तपस्याओं में जी सकने की क्षमता। पाऊँ कदाचित् वह इष्ट कभी कोई अमरत्व जिसे सम्मानित करते मानवता सम्मानित हो। सागर-प्रक्षालित पग, स्फुर घन उत्तरीय, वन प्रान्तर जटाजूट, माथे सूरज उदीय, ...इतना पर्याप्त अभी। स्मरण में अमिट स्पर्श निष्कलंक मर्यादाओं के। बात एक बनने का साहस-सा करती....। तुम्हारे शब्दों में यदि न कह सकूँ अपनी बात, विधि-विहीन प्रार्थना यदि तुम तक न पहुँचे तो क्षमा कर देना, मेरे उपकार-मेरे नैवेद्य- समृद्धियों को छूते हुए अर्पित होते रहे जिस ईश्वर को वह यदि अस्पष्ट भी हो तो ये प्रार्थनाएँ सच्ची हैं...इन्हें अपनी पवित्रताओं से ठुकराना मत, चुपचाप विसर्जित हो जाने देना समय पर....सूर्य पर... भूख के अनुपयुक्त इस किंचित् प्रसाद को फिर जूठा मत करना अपनी श्रद्धाओं से, इनके विधर्म को बचाना अपने शाप से, इनकी भिक्षुक विनय को छोटा मत करना अपनी भिक्षा की नाप से उपेक्षित छोड़ देना हवाओं पर, सागर पर.... कीर्ति-स्तम्भ वह अस्पष्ट आभा, सूर्य से सूर्य तक, प्राण से प्राण तक। नक्षत्रों, असंवेद्य विचरण को शीर्षक दो भीड़-रहित पूजा को फूल दो तोरण-मण्डप-विहीन मन्दिर को दीपक दो जबतक मैं न लौटूँ उपासित रहे वह सब जिस ओर मेरे शब्दों के संकेत। जब-जब समर्थ जिज्ञासा से काल की विदेह अतिशयता को कोई ललकारे- सीमा-सन्दर्भहीन साहस को इंगित दो। पिछली पूजाओं के ये फूटे मंगल-घट। किसी धर्म-ग्रन्थ के पृष्ठ-प्रकरण-शीर्षक- सब अलग-अलग। वक्ता चढ़ावे के लालच में बाँच रहे शास्त्र-वचन, ऊँघ रहे श्रोतागण !... ओ मस्तक विराट, इतना अभिमान रहे- भ्रष्ट अभिषेकों को न दूँ मस्तक न दूँ मान.. इससे अच्छा चुपचाप अर्पित हो जा सकूँ दिगन्त प्रतीक्षाओं को....

Read Next