वाजश्रवा
पिता, तुम भविष्य के अधिकारी नहीं, क्योंकि तुम ‘अपने’ हित के आगे नहीं सोच पा रहे, न अपने ‘हित’ को ही अपने सुख के आगे। तुम वर्तमान को संज्ञा देते हो, पर महत्त्व नहीं। तुम्हारे पास जो है, उसे ही बार-बार पाते हो और सिद्ध नहीं कर पाते कि उसने तुम्हें सन्तुष्ट किया। इसीलिए तुम्हारी देन से तुम्हारी ही तरह फिर पानेवाला तृप्त नहीं होता, तुम्हारे पास जो है, उससे और अधिक चाहता है, विश्वास नहीं करता कि तुम इतना ही दे सकते हो। पिता, तुम भविष्य के अधिकारी नहीं, क्योंकि तुम्हारा वर्तमान जिस दिशा में मुड़ता है वहां कहीं एक भयानक शत्रु है जो तुम्हें मारकर तुम्हारे संचयों को तुम्हारे ही मार्ग में ही लूट लेता है, और तुम खाली हाथ लौट आते हो।

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