शायद उसी वक़्त मैंने
गिरते देका था ट्रेन से दो पांवों की
और चौंक कर उठ बैठा था ।
पैताने दो पांव-
क्यों हैं यहां ? क्या करूं इनका ?
सोच रात है अभी,
सुबह उतार लूँगा इन्हें
अपने सामान के साथ ।
सुबह हुई तो देखा
कन्धों पर ढो रहे थे मुझे
किसी और के पाँव ।
हफ़्ते.....महीने....साल....
बीत गए पल भर में,
“पिता ? तुम ? यहां ?”
“मुझे चाहिए मेरे पाँव,....वापस करो उन्हें ।”
“नहीं,वे मेरे हैं : मैं
उन पर आश्रित हूँ।
और मेरा परिवार :
मैं उन्हें नहीं दे सकता तुम्हें !”
वे हँसने लगे, एक बेजान असंगत हँसी ।
कभी कभी किसी विषम घड़ी में हम
जी डालते हैं एक पूरा जीवन - एक पूरी मृत्यु --
एक पूरा सन्देह कि कौन चल रहा है
किसके पाँवों पर ?