एक यात्रा के दौरान / नौ
शायद उसी वक़्त मैंने गिरते देका था ट्रेन से दो पांवों की और चौंक कर उठ बैठा था । पैताने दो पांव- क्यों हैं यहां ? क्या करूं इनका ? सोच रात है अभी, सुबह उतार लूँगा इन्हें अपने सामान के साथ । सुबह हुई तो देखा कन्धों पर ढो रहे थे मुझे किसी और के पाँव । हफ़्ते.....महीने....साल.... बीत गए पल भर में, “पिता ? तुम ? यहां ?” “मुझे चाहिए मेरे पाँव,....वापस करो उन्हें ।” “नहीं,वे मेरे हैं : मैं उन पर आश्रित हूँ। और मेरा परिवार : मैं उन्हें नहीं दे सकता तुम्हें !” वे हँसने लगे, एक बेजान असंगत हँसी । कभी कभी किसी विषम घड़ी में हम जी डालते हैं एक पूरा जीवन - एक पूरी मृत्यु -- एक पूरा सन्देह कि कौन चल रहा है किसके पाँवों पर ?

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