तुम्हारी आँखों का आकाश
तुम्हारी आँखों का आकाश, सरल आँखों का नीलाकाश- खो गया मेरा खग अनजान, मृगेक्षिणि! इनमें खग अज्ञान। देख इनका चिर करुण-प्रकाश, अरुण-कोरों में उषा-विलास, खोजने निकला निभृत निवास, पलक-पल्लव-प्रच्छाय-निवास; न जाने ले क्या क्या अभिलाष खो गया बाल-विहग-नादान! तुम्हारे नयनों का आकाश सजल, श्यामल, अकूल आकाश! गूढ़, नीरव, गम्भीर प्रसार, न गहने को तृण का आधार; बसाएगा कैसे संसार, प्राण! इनमें अपना संसार! न इसका ओर-छोर रे पार, खो गया वह नव-पथिक अजान!

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