मेरी आत्मा जो कि तुम्हारी
मेरी आत्मा जो कि तुम्हारी प्रीति सुरा की पीती धार, भटक रही किस रोष दोष वश वह इस जग में बारंबार! पहले तुमने कभी न ऐसा नाथ, किया निर्मम व्यवहार, भोग रही वह आज दंड क्यों, वहन कर रही जीवन भार!

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