मुख छवि विलोक जो अपलक
मुख छबि विलोक जो अपलक रह जायँ न, वे क्या लोचन? विरहानल में जल जल कर गल जाय न जो, वह क्या मन! तुझको न भले भाता हो प्रेमी का यह पागलपन, उर उर में दहक रहा पर तेरे प्रेमानल का कण!

Read Next