अंबर फिर फिर क्या करता स्थिर
अंबर फिर फिर क्या करता स्थिर, यह चिर अविदित! छीन स्वप्न सुख, देता क्यों दुख वह सब को नित! बीते युग-क्षण करते चिन्तन स्थिर न हुआ चित, किया क्या उमर, गँवा दी उमर, रहा अनिश्चित!

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