सन्यासी का गीत
छेड़ो हे वह गान अंतत्तोद्भव अकल्प वह गान विश्व ताप से शून्य गह्वरों में गिरि के अम्लान निभृत अरण्य देशों में जिसका शुचि जन्म स्थान जिनकी शांति न कनक काम यश लिप्सा का निःश्वास भंग कर सका जहाँ प्रवाहित सत् चित् की अविलास स्त्रोतस्विनी उमड़ता जिसमें बह आनन्द अनास गाओ बढ़ वह गान वीर सन्यासी गूँजे व्योम ओम् तत्सत् ओम्! तोड़ो सब शृंखला, उन्हें निज जीवन बन्धन जान हों उज्ज्वल कांचन के अथवा क्षुद्र धातु के म्लान प्रेम घृणा, सद् असद् सभी ये द्वन्द्वों के संधान! दास सदा ही दास समाप्त किंवा ताड़ित, परतंत्र स्वर्ण निगड़ होने से क्या वे सुदृढ़ न बंधन यंत्र? अतः उन्हें सन्यासी तोड़ो छिन्न करो गा मंत्र, ओम् तत्सत् ओम्! अंधकार हो दूर ज्योति-छल जल बुझ बारंबार दृष्टि भ्रमित करता तह पर तह मोह तमस विस्तार! मिटे अजस्र तृषा जीवन की जो आवागम द्वार जन्म मृत्यु के बीच खींचती आत्मा को अनजान विश्वमयी वह आत्ममयी जो मानो इसे प्रमाण अविचल अतः रहो सन्यासी, गाओ निर्भय गान, ओम् तत्सत् ओम्! खोजोगे पालोगे निश्चित कारण कार्य विधान! कारण शुभ का शुभ औ’ अशुभ अशुभ का फल धीमान् दुर्निवार यह नियम जीव का नाम रूप परिधान बंधन हैं सच है पर दोनों नाम रूप के पार नित्य मुक्त आत्मा करती है बंधन हीन विहार! तुम वह आत्मा हो सन्यासी, बोलो वीर उदार, ओम् तत्सत् ओम्! ज्ञान शून्य वे जिन्हें सूझते स्वप्न सदा निःसार— माता पिता पुत्र औ’ भार्या, बांधव जन, परिवार! लिंग मुक्त है आत्मा! किसका पिता पुत्र या दार? किसका शत्रु मित्र वह जो है एक अभिन्न अनन्य उसी सर्वगत आत्मा का अस्तित्व नहीं है अन्य! कहो तत्वमसि सन्यासी गाओ हे तुम हो धन्य, ओम् तत्सत् ओम्! एक मात्र है केवल आत्मा ज्ञाता, चिर विमुक्त नाम हीन वह रूप हीन, वह है रे चिह्न अयुक्त उसके आश्रित माया, रचती स्वप्नों का भव पाश, साक्षी वह जो पुरुष प्रकृति में पाता नित्य प्रकाश! तुम वह हाँ बोलो सन्यासी छिन्न करो तम तोम, ओम् तत्सत् ओम्! कहाँ खोजते उसे सखे इस ओर कि या उस पार? मुक्ति नहीं है यहाँ वृथा सब शास्त्र देव गृहद्वार! व्यर्थ यत्न सब, तुम्हीं हाथ में पकड़े हो वह पाश खींच रहा जो साथ तुम्हें! तो उठो बनो न हताश! छोड़ो कर से दाम, कहो सन्यासी विहँसे रोम, ओम् तत्सत् ओम्! कहो शांत हों सर्व शांत हों सचराचर अविराम, क्षति न उन्हें हो मुझसे मैं ही सब भूतों का ग्राम ऊँच नीच द्यौ मर्त्य विहारी, सबका आत्माराम! त्याज्य लोक परलोक मुझे जीवन तृष्णा, भवबंध स्वर्ग मही पाताल सभी आशा भय, सुखदुख द्वन्द्व! इस प्रकार काटो बंधन सन्यासी रहो अबंध, ओम् तत्सत् ओम्! देह रहे जावे मत सोचो तन की चिन्ता भार उसका कार्य समाप्त ले चले उसे कर्मगति धार हार उसे पहनावे कोई करे कि पाद प्रहार मौन रहो क्या रहा कहो निन्दा या स्तुति अभिषेक? यत्र तत्र निर्भय विचरो तुम खोलो मायापाश अंधकार पीड़ित जीवों के! दुखसे बनो न भीत सुख की भी मत चाह करो जाओ हे रहो अतीत द्वन्द्वों से सब रटो वीर सन्यासी, मंत्र पुनीत ओम् तत्सत् ओम्! इस प्रकार दिन प्रतिदिन जब तक कर्मशक्ति हो क्षीण बंधन मुक्त करो आत्मा को जन्म मरण हों लीन! फिर से रह गये मैं तुम ईश्वर जीव या कि भवबंध मैं सब में सब मुझमें—केवल मात्र परम आनन्द! कहो तत्वमसि सन्यासी फिर गाओ गीत अमन्द ओम् तत्सत् ओम्!

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