विहग के प्रति
विजन-वन के ओ विहग-कुमार! आज घर-घर रे तेरे गान; मधुर-मुखरित हो उठा अपार जीर्ण-जग का विषण्ण-उद्यान! सहज चुन-चुन लघु तृण, खर, पात, नीड़ रच-रच निशि-दिन सायास, छा दिये तूने, शिल्पि-सुजात! जगत की डाल-डाल में वास। मुक्त-पंखों में उड़ दिन रात, सहज स्पन्दित कर जग के प्राण, शून्य-नभ में भर दी अज्ञात मधुर-जीवन की मादक-तान। सुप्त-जग में गा स्वप्निल-गान स्वर्ण से भर दी प्रथम-प्रभात, मंजु-गुंजित हो उठा अजान फुल्ल जग-जीवन का जलजात। श्रान्त, सोती जब सन्ध्या-वात, विश्व-पादप निश्वल, निष्प्राण,-- जगाता तू पुलकित कर पात जगत-जीवन का शतमुख-गान। छोड़ निर्जन का निभृत निवास, नीड़ में बँध जग के सानन्द, भर दिए कलरव से दिशि-आस गृहों में कुसुमित, मुदित, अमन्द! रिक्त होते जब-जब तरु-वास रूप धर तू नव नव तत्काल, नित्य-नादित रखता सोल्लास विश्व के अक्षय-वट की डाल। मुग्ध-रोओं में मेरे, प्राण! बना पुलकों के सुख का नीड़, फूँकता तू प्राणों में गान हृदय मेरा तेरा आक्रीड़। दूर बन के ओ राजकुमार! अखिल उर-उर में तेरे गान, मधुर इन गीतों से, सुकुमार! अमर मेरे जीवन औ’ प्राण।

Read Next