तेरा कैसा गान
तेरा कैसा गान, विहंगम! तेरा कैसा गान? न गुरु से सीखे वेद-पुराण, न षड्दर्शन, न नीति-विज्ञान; तुझे कुछ भाषा का भी ज्ञान, काव्य, रस, छन्दों की पहचान? न पिक-प्रतिभा का कर अभिमान, मनन कर, मनन, शकुनि-नादान! हँसते हैं विद्वान, गीत-खग, तुझ पर सब विद्वान! दूर, छाया-तरु-बन में वास; न जग के हास-अश्रु ही पास; अरे, दुस्तर जग का आकाश, गूढ़ रे छाया-ग्रथित-प्रकाश; छोड़ पंखों की शून्य-उड़ान, वन्य-खग! विजन-नीड़ के गान। (ख) मेरा कैसा गान, न पूछो मेरा कैसा गान! आज छाया बन-बन मधुमास, मुग्ध-मुकुलों में गन्धोच्छ्वास; लुड़कता तृण-तृण में उल्लास, डोलता पुलकाकुल वातास; फूटता नभ में स्वर्ण-विहान, आज मेरे प्राणों में गान। मुझे न अपना ध्यान, कभी रे रहा न जग का ज्ञान! सिहरते मेरे स्वर के साथ, विश्व-पुलकावलि-से-तरु-पात; पार करते अनन्त अज्ञात गीत मेरे उठ सायं-प्रात; गान ही में रे मेरे प्राण, अखिल-प्राणों में मेरे गान।

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