एक तारा
नीरव सन्ध्या मे प्रशान्त डूबा है सारा ग्राम-प्रान्त। पत्रों के आनत अधरों पर सो गया निखिल बन का मर्मर, ज्यों वीणा के तारों में स्वर। खग-कूजन भी हो रहा लीन, निर्जन गोपथ अब धूलि-हीन, धूसर भुजंग-सा जिह्म, क्षीण। झींगुर के स्वर का प्रखर तीर, केवल प्रशान्ति को रहा चीर, सन्ध्या-प्रशान्ति को कर गभीर। इस महाशान्ति का उर उदार, चिर आकांक्षा की तीक्ष्ण-धार ज्यों बेध रही हो आर-पार। अब हुआ सान्ध्य-स्वर्णाभ लीन, सब वर्ण-वस्तु से विश्व हीन। गंगा के चल-जल में निर्मल, कुम्हला किरणों का रक्तोपल है मूँद चुका अपने मृदु-दल। लहरों पर स्वर्ण-रेख सुन्दर, पड़ गई नील, ज्यों अधरों पर अरुणाई रप्रखर-शिशिसे डर। तरु-शिखरों से वह स्वर्ण-विहग, उड़ गया, खोल निज पंख सुभग, किस गुहा-नीड़ में रे किस मग! मृदु-मृदु स्वप्नों से भर अंचल, नव नील-नील, कोमल-कोमल, छाया तरु-वन में तम श्यामल। पश्चिम-नभ में हूँ रहा देख उज्ज्वल, अमन्द नक्षत्र एक! अकलुष, अनिन्द्य नक्षत्र एक ज्यों मूर्तिमान ज्योतित-विवेक, उर में हो दीपित अमर टेक। किस स्वर्णाकांक्षा का प्रदीप वह लिए हुए? किसके समीप? मुक्तालोकित ज्यों रजत-सीप! क्या उसकी आत्मा का चिर-धन स्थिर, अपलक-नयनों का चिन्तन? क्या खोज रहा वह अपनापन? दुर्लभ रे दुर्लभ अपनापन, लगता यह निखिल विश्व निर्जन, वह निष्फल-इच्छा से निर्धन! आकांक्षा का उच्छ्वसित वेग मानता नहीं बन्धन-विवेक! चिर आकांक्षा से ही थर् थर्, उद्वेलित रे अहरह सागर, नाचती लहर पर हहर लहर! अविरत-इच्छा ही में नर्तन करते अबाध रवि, शशि, उड़गण, दुस्तर आकांक्षा का बन्धन! रे उडु, क्या जलते प्राण विकल! क्या नीरव, नीरव नयन सजल! जीवन निसंग रे व्यर्थ-विफल! एकाकीपन का अन्धकार, दुस्सह है इसका मूक-भार, इसके विषाद का रे न पार! चिर अविचल पर तारक अमन्द! जानता नहीं वह छन्द-बन्ध! वह रे अनन्त का मुक्त-मीन अपने असंग-सुख में विलीन, स्थित निज स्वरूप में चिर-नवीन। निष्कम्प-शिखा-सा वह निरुपम, भेदता जगत-जीवन का तम, वह शुद्ध, प्रबुद्ध, शुक्र, वह सम! गुंजित अलि सा निर्जन अपार, मधुमय लगता घन-अन्धकार, हलका एकाकी व्यथा-भार! जगमग-जगमग नभ का आँगन लद गया कुन्द कलियों से घन, वह आत्म और यह जग-दर्शन!

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