बादल
सुरपति के हम हैं अनुचर , जगत्प्राण के भी सहचर ; मेघदूत की सजल कल्पना , चातक के चिर जीवनधर; मुग्ध शिखी के नृत्य मनोहर, सुभग स्वाति के मुक्ताकर; विहग वर्ग के गर्भ विधायक, कृषक बालिका के जलधर ! भूमि गर्भ में छिप विहंग-से, फैला कोमल, रोमिल पंख , हम असंख्य अस्फुट बीजों में, सेते साँस, छुडा जड़ पंक ! विपुल कल्पना से त्रिभुवन की विविध रूप धर भर नभ अंक, हम फिर क्रीड़ा कौतुक करते, छा अनंत उर में निःशंक ! कभी चौकड़ी भरते मृग-से भू पर चरण नहीं धरते , मत्त मतगंज कभी झूमते, सजग शशक नभ को चरते; कभी कीश-से अनिल डाल में नीरवता से मुँह भरते , बृहत गृद्ध-से विहग छदों को , बिखरते नभ,में तरते ! कभी अचानक भूतों का सा प्रकटा विकट महा आकार कड़क,कड़क जब हंसते हम सब , थर्रा उठता है संसार ; फिर परियों के बच्चों से हम सुभग सीप के पंख पसार, समुद तैरते शुचि ज्योत्स्ना में, पकड़ इंदु के कर सुकुमार ! अनिल विलोरित गगन सिंधु में प्रलय बाढ़ से चारो ओर उमड़-उमड़ हम लहराते हैं बरसा उपल, तिमिर घनघोर; बात बात में, तूल तोम सा व्योम विटप से झटक ,झकोर हमें उड़ा ले जाता जब द्रुत दल बल युत घुस बातुल चोर ! व्योम विपिन में वसंत सा खिलता नव पल्लवित प्रभात , बरते हम तब अनिल स्रोत में गिर तमाल तम के से पात ; उदयाचल से बाल हंस फिर उड़ता अंबर में अवदात फ़ैल स्वर्ण पंखों से हम भी, करते द्रुत मारुत से बात ! पर्वत से लघु धूलि.धूलि से पर्वत बन ,पल में साकार -- काल चक्र से चढ़ते गिरते, पल में जलधर,फिर जलधार; कभी हवा में महल बनाकर, सेतु बाँधकर कभी अपार , हम विलीन हों जाते सहसा विभव भूति ही से निस्सार ! हम सागर के धवल हास हैं जल के धूम ,गगन की धूल , अनिल फेन उषा के पल्लव , वारि वसन,वसुधा के मूल ; नभ में अवनि,अवनि में अंबर , सलिल भस्म,मारुत के फूल, हम हीं जल में थल,थल में जल, दिन के तम ,पावक के तूल ! व्योम बेलि,ताराओं में गति , चलते अचल, गगन के गान, हम अपलक तारों की तंद्रा, ज्योत्सना के हिम,शशि के यान; पवन धेनु,रवि के पांशुल श्रम , सलिल अनल के विरल वितान ! व्योम पलक,जल खग ,बहते थल, अंबुधि की कल्पना महान ! धूम-धुआँरे ,काजल कारे , हम हीं बिकरारे बादल , मदन राज के बीर बहादुर , पावस के उड़ते फणिधर ! चमक झमकमय मंत्र वशीकर छहर घहरमय विष सीकर, स्वर्ग सेतु-से इंद्रधनुषधर , कामरूप घनश्याम अमर !

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