आज शिशु के कवि को अनजान
आज शिशु के कवि को अनजान मिल गया अपना गान! खोल कलियों के उर के द्वार दे दिया उसको छबि का देश; बजा भौरों ने मधु के तार कह दिए भेद भरे सन्देश; आज सोये खग को अज्ञात स्वप्न में चौंका गई प्रभात; गूढ़ संकेतों में हिल पात कह रहे अस्फुट बात; आज कवि के चिर चंचल-प्राण पागए अपना गान! दूर, उन खेतों के उस पार, जहाँ तक गई नील-झंकार, छिपा छाया-बन में सुकुमार स्वर्ग की परियों का संसार; वहीं, उन पेड़ों में अज्ञात चाँद का है चाँदी का वास, वहीं से खद्योतों के साथ स्वप्न आते उड़-उड़ कर पास। इन्हीं में छिपा कहीं अनजान मिला कवि को निज गान!

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