मधुवन
आज नव-मधु की प्रात झलकती नभ-पलकों में प्राण! मुग्ध-यौवन के स्वप्न समान,-- झलकती, मेरी जीवन-स्वप्न! प्रभात तुम्हारी मुख-छबि-सी रुचिमान! आज लोहित मधु-प्रात व्योम-लतिका में छायाकार खिल रही नव-पल्लव-सी लाल, तुम्हारे मधुर-कपोलों पर सुकुमार लाज का ज्यों मृदु किसलय-जाल! आज उन्मद मधु प्रात गगन के इन्दीवर से नील झर रही स्वर्ण-मरन्द समान, तुम्हारे शयन-शिथिल सरसिज उन्मील छलकता ज्यों मदिरालस, प्राण! आज स्वर्णिम मधु-प्रात व्योम के विजन कुंज में, प्राण! खुल रही नवल गुलाब समान, लाज के विनत-वृन्त पर ज्यों अभिराम तुम्हारा मुख-अरविन्द सकाम। प्रिये, मुकुलित मधु-प्रात मुक्त नभ-वेणी में सोभार सुहाती रक्त-पलाश समान; आज मधुवन मुकुलों में झुक साभार तुम्हें करता निज विभव प्रदान। [२] डोलने लगी मधुर मधुवात हिला तृण, व्रतति, कुंज, तरु-पात, डोलने लगी प्रिये! मृदु-वात गुंज-मधु-गन्ध-धूलि-हिम-गात। खोलने लगीं, शयित-चिरकाल, नवल-कलि अलस-पलक-दल-जाल, बोलने लगीं, डाल से डाल, प्रमुद, पुलकाकुल कोकिल-बाल। युवाओं का प्रिय-पुष्प गुलाब, प्रणय-स्मृति-चिन्ह, प्रथम-मधुबाल, खोलता लोचन-दल मदिराम, प्रिये, चल-अलिदल से वाचाल। आज मुकुलित-कुसुमित चहुँ ओर तुम्हारी छबि की छटा अपार। फिर रहे उन्मद मधु-प्रिय भौंर नयन पलकों के पंख पसार। तुम्हारी मंजुल मूर्त्ति निहार लग गई मधु के बन में ज्वाल, खड़े किंशुक, अनार, कचनार लालसा की लौ-से उठ लाल। कपोलों की मदिरा पी, प्राण! आज पाटल गुलाब के जाल, विनत शुक-नासा का धर ध्यान बन गये पुष्प पलाश अराल। खिल उठी चल-दसनावलि आज कुन्द-कलियों में कोमल-आम, एक चंचल-चितवन के व्याज तिलक को चारु छत्र-सुख लाभ। तुम्हारे चल-पद चूम निहाल मंजरित अरुण अशोक सकाल, स्पर्श से रोम-रोम तत्काल सतत-सिंचित प्रियंगु की बाल। स्वर्ण-कलियों की रुचि सुकुमार चुरा चम्पक तुमसे मृदु-वास, तुम्हारी शुचि स्मिति से साभार, भ्रमर को आने दे क्यों पास? देख चंचल मृदु-पटु पद-चार लुटाता स्वर्ण-राशि कनियार, हृदय फूलों में लिए उदार नर्म-मर्मज्ञ मुग्ध मन्दार। तुम्हारी पी मुख-वास तरंग आज बौरे भौंरे, सहकार, चुनाती नित लवंग निज अंग तन्वि! तुम-सी बनने सुकुमार। लालिमा भर फूलों में, प्राण! सीखती लाजवती मृदु लाज, माधवी करती झुक सम्मान देख तुम में मधु के सब साज। नवेली बेला उर की हार, मोतिया मोती सी मुसकान, मोगरा कर्णफूल-सा स्फार, अँगुलियाँ मदनबान की बान। तुम्हारी तनु-तनिमा लघु-भार बनी मृदु व्रतति-प्रतति का जाल, मृदुलता सिरिस-मुकुल सुकुमार, विपुल पुलकावलि चीना-डाल। प्रिये, कलि-कुसुम-कुसुम में आज मधुरिमा मधु, सुखमा सुविकास, तुम्हारी रोम रोम छबि-व्याज छा गया मधुवन में मधुमास। [३] वितरती गृह-बन मलय-समीर साँस, सुधि, स्वप्न, सुरभि, सुख, गान, मार केशर-शर मलय-समीर हृदय हुलसित कर, पुलकित प्राण। बेलि-सी फैल-फैल नवजात चपल, लघु-पद, लहलह, सुकुमार, लिपट लगती मलयानिल गात झूम, झुक-झुक सौरभ के भार। आज, तृण, छद, खग, मृग, पिक, कीर, कुसुम, कलि, व्रतति, विटप, सोच्छ्वास, अखिल आकुल, उत्कलित, अधीर, अवनि, जल, अनिल, अनल, आकाश! आज वन में पिक, पिक में गान, विटप में कलि, कलि में सुविकास, कुसुम में रज, रज में मधु, प्राण! सलिल में लहर, लहर में लास। देह में पुलक, उरों में भार, भ्रुवों में भंग, दृगों में बाण, अधर में अमृत, हृदय में प्यार, गिरा में लाज, प्रणय में मान। तरुण विटपों से लिपट सुजात, सिहरतीं लतिका मुकुलित-गात, सिहरतीं रह-रह सुख से, प्राण! लोम-लतिका बन कोमल-गात। गन्ध-गुंजित कुंजों में आज बँधे बाँहों में छायाऽलोक, छजा मृदु हरित-छदों का छाज, खड़े द्रुम, तुमको खड़ी विलोक। मिल रहे नवल बेलि-तरु, प्राण! शुकी-शुक, हंस-हंसिनी संग, लहर-सर, सुरभि-समीर विहान, मृगी-मृग, कलि-अलि, किरण-पतंग। मिलें अधरों से अधर समान, नयन से नयन, गात से गात, पुलक से पुलक, प्राण से प्राण, भुजों से भुज, कटि से कटि शात। आज तन-तन मन-मन हों लीन, प्राण! सुख-सुख, स्मृति-स्मृति चिरसात्, एक क्षण, अखिल दिशावधि-हीन, एक रस, नाम-रूप-अज्ञात!

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