विहग, विहग
विहग, विहग, फिर चहक उठे ये पुंज-पुंज, कल-कूजित कर उर का निकुंज, चिर सुभग, सुभग! किस स्वर्ण-किरण की करुण-कोर कर गई इन्हें सुख से विभोर? किन नव स्वप्नों की सजग-भोर? हँस उठे हृदय के ओर-छोर जग-जग खग करते मधुर-रोर, मैं रे प्रकाश में गया बोर! चिर मुँदे मर्म के गुहा-द्वार, किस स्वर्ग-रश्मि ने आर-पार छू दिया हृदय का अन्धकार! यह रे, किस छबि का मदिर-तीर? मधु-मुखर प्राण का पिक अधीर डालेगा क्या उर चीर-चीर! अस्थिर है साँसों का समीर, गुंजित भावों की मधुर-भीर, झर झरता सुख से अश्रु-नीर! बहती रोओं में मलय-वात, स्पन्दित-उर, पुलकित पात-गात, जीवन में रे यह स्वर्ण-प्रात! नव रूप, गन्ध, रँग, मधु, मरन्द, नव आशा, अभिलाषा अमन्द, नव गीत-गुंज, नव भाव-छन्द,-- (ये) विहग, विहग जग उठे, जग उठे पुंज-पुंज, कूजित-गुंजित कर उर-निकुंज, चिर सुभग, सुभग!

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