रूप-तारा तुम पूर्ण प्रकाम
रूप-तारा तुम पूर्ण प्रकाम; मृगेक्षिणि! सार्थक नाम। एक लावण्य-लोक छबिमान, नव्य-नक्षत्र समान, उदित हो दृग-पथ में अम्लान तारिकाओं की तान! प्रणय का रच तुमने परिवेश दीप्त कर दिया मनोनभ-देश; स्निग्ध सौन्दर्य-शिखा अनिमेष! अमन्द, अनिन्द्य, अशेष! उषा सी स्वर्णोदय पर भोर दिखा मुख कनक-किशोर; प्रेम की प्रथम गदिरतम-कोर दृगों में दुरा कठोर; छा दिया यौवन-शिखर अछोर रूप किरणों में बोर; सजा तुमने सुख-स्वर्ण-सुहाग, लाज-लोहित-अनुराग! नयन-तारा बन मनोभिराम, सुमुखि, अब सार्थक करो स्वनाम! तारिका-सी तुम दिव्याकार, चन्द्रिका की झंकार! प्रेम-पंखों में उड़ अनिवार अप्सरी-सी लघु-भार, स्वर्ग से उतरी क्या सोद्गार प्रणय-हंसिनि सुकुमार? हृदय सर में करने अभिसार, रजत-रति, स्वर्ण-विहार! आत्म-निर्मलता में तल्लीन चारु-चित्रा-सी, आभासीन; अधिक छिपने में खुल अनजान तन्वि! तुमने लोचन मन छीन कर दिए पलक-प्राण गति-हीन, लाज के जल की मीन! रूप की-सी तुम ज्वलित-विमान, स्नेह की सृष्टि नवीन! हृदय-नभ-तारा बन छबिधाम प्रिये! अब सार्थक करो स्वनाम! प्रथम-यौवन मेरा मधुमास, मुग्ध-उर मधुकर, तुम मधु, प्राण! शयन लोचन, सुधि स्वप्न-विलास, मधुर-तन्द्रा प्रिय-ध्यान; शून्य-जीवन निसंग आकाश, इन्दु-मुख इन्दु समान; हृदय सरसी, छबि पद्म-विकास, स्पृहाएँ उर्मिल-गान! कल्पना तुममें एकाकार, कल्पना में तुम आठों याम; तुम्हारी छबि में प्रेम-अपार; प्रेम में छबि अभिराम; अखिल इच्छाओं का संसार स्वर्ण-छबि में निज गढ़ छबिमान, बन गई मानसि! तुम साकार देह दो एक-प्राण!

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