जाने किस छल-पीड़ा से
जाने किस छल-पीड़ा से व्याकुल-व्याकुल प्रतिपल मन, ज्यों बरस-बरस पड़ने को हों उमड़-उमड़ उठते घन! अधरों पर मधुर अधर धर, कहता मृदु स्वर में जीवन-- बस एक मधुर इच्छा पर अर्पित त्रिभुवन-यौवन-धन! पुलकों से लद जाता तन, मुँद जाते मद से लोचन; तत्क्षण सचेत करता मन-- ना, मुझे इष्ट है साधन! इच्छा है जग का जीवन, पर साधन आत्मा का धन; जीवन की इच्छा है छल, इच्छा का जीवन जीवन। फिरतीं नीरव नयनों में छाया-छबियाँ मन-मोहन, फिर-फिर विलीन होने को ज्यों घिर-घिर उठते हों घन। ये आधी, अति इच्छाएँ साधन में बाधा-बंधन; साधन भी इच्छा ही है, सम-इच्छा ही रे साधन। रह-रह मिथ्या-पीड़ा से दुखता-दुखता मेरा मन, मिथ्या ही बतला देती मिथ्या का रे मिथ्यापन!

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