तप रे मधुर-मधुर मन
तप रे मधुर-मधुर मन! विश्व-वेदना में तप प्रतिपल, जग-जीवन की ज्वाला में गल, बन अकलुष, उज्ज्वल औ’ कोमल, तप रे विधुर-विधुर मन! अपने सजल-स्वर्ण से पावन रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम, स्थापित कर जग में अपनापन, ढल रे ढल आतुर-मन!         तेरी मधुर-मुक्ति ही बंधन, गंध-हीन तू गंध-युक्त बन, निज अरूप में भर-स्वरूप, मन, मूर्तिमान बन, निर्धन! गल रे गल निष्ठुर-मन!

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