ए मिट्टी के ढेले
ऐ मिट्टी के ढेले अनजान! तू जड़ अथवा चेतना-प्राण? क्या जड़ता-चेतनता समान, निर्गुण, निसंग, निस्पृह, वितान? कितने तृण, पौधे, मुकुल, सुमन, संसृति के रूप-रंग मोहन, ढीले कर तेरे जड़ बन्धन आए औ’ गए! (यही क्या मन?) अब हुआ स्वप्न मधु का जीवन, विस्मृत-स्मृति के विमुक्त बन्धन! खुल गया शून्यमय अवगुंठन अज्ञेय सत्य तू जड़-चेतन!

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