अंतर्गमन
दाँई बाँई ओर, सामने पीछे निश्चित नहीं सूझता कुछ भी बहिरंतर तमसावृत! हे आदित्यो मेरा मार्ग करो चिर ज्योतित धैर्य रहित मैं भय से पीड़ित अपरिपक्व चित! विविध दृश्य शब्दों की माया गति से मोहित मेरे चक्षु श्रवण हो उठते मोह से भ्रमित! विचरण करता रहता चंचल मन विषयों पर दिव्य हृदय की ज्योति बहिर्मुख गई है बिखर! तेजहीन मैं क्या उत्तर दूँ करूँ क्या मनन, मैं खो गया विविध द्वारों से कर बहिर्गमन! भरते थे सुन्दर उड़ान जो पक्षी प्रतिक्षण प्रिय था जिन इंद्रियों को सतत रूप संगमन! आज श्रांत हो विषयाघातों से हो कातर तुम्हें पुकार रहीं वे ज्योति मनस् के ईश्वर! रूप पाश में बद्ध ज्ञान में अपने सीमित इन्द्र, तुम्हारी अमित ज्योति के हित उत्कंठित! प्रार्थी वे हे देव हटा यह तमस आवरण ज्ञान लोक में आज हमारे खोलो लोचन! ज्योति पुरुष तुम जहाँ, दिव्य मन के हो स्वामी निखिल इंद्रियों के परिचालक अंतर्यामी! ऋत चित से है जहाँ सूक्ष्म नभ चिर आलोकित उस प्रकाश में हमें जगाओ, इन्द्र अपरिमित!

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