ज्योति झर
बरसो ज्योति अमर तुम मेरे भीतर बाहर जग के तम से निखर निखर बरसो हे जीवन ईश्वर! झरते मोती के शत निर्झर शैल शिखर से झर झर फूटें मेरे प्राणों से भी दिव्य चेतना के स्वर! तन मन के जड़ बंधन टूटें जीवन रस के निर्झर छूटें, प्राणों का स्वर्णिम मधु लूटें मुग्ध निखिल नारी नर! विघ्नों के गिरि शृंग गिरें चिर मुक्त सृजन आनंद झरे, फिर नव जीवन सौन्दर्य भरे जग के सरिता सर सागर! बरसो जीवन ज्योति हे अमर दिव्य चेतना की सावन झर, स्वर्ण काल के कुसुमित अक्षर फिर से लिख वसुधा पर!

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