कुंठित
तुम्हें नहीं देता यदि अब सुख चंद्रमुखी का मधुर चंद्रमुख रोग जरा औ’ मृत्यु देह में, जीवन चिन्तन देता यदि दुख आओ प्रभु के द्वार! जन समाज का वारिधि विस्तृत लगता अचिर फेन से मुखरित हँसी खेल के लिए तरंगें तुम्हें न यदि करतीं आमंत्रित आओ प्रभु के द्वार! मेघों के सँग इन्द्रचाप स्मित यदि न कल्पना होती धावित, शरद वसंत नहीं हरते मन शशिमुख दीपित, स्वर्ण मंजरित आओ प्रभु के द्वार! प्राप्त नहीं जो ऐसे साधन करो पुत्र दारा का पालन, पौरुष भी जो नहीं कर सको जन मंगल जनगण परिचालन आओ प्रभु के द्वार! संभव है तुम मन से कुंठित संभव है, तुम जग से लुंठित तुम्हें लोह से स्वर्ण बना प्रभु जग के प्रति कर देंगे जीवित, आओ प्रभु के द्वार!

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