स्वप्न बंधन
बाँध लिया तुमने प्राणों को फूलों के बंधन में एक मधुर जीवित आभा सी लिपट गई तुम मन में! बाँध लिया तुमने मुझको स्वप्नों के आलिंगन में! तन की सौ शोभाएँ सन्मुख चलती फिरती लगतीं सौ सौ रंगों में, भावों में तुम्हें कल्पना रँगती, मानसि तुम सौ बार एक ही क्षण में मन में जगती! तुम्हें स्मरण कर जी उठते यदि स्वप्न आँक उर में छबि तो आश्चर्य प्राण बन जावें गान, हृदय प्रणयी कवि? तुम्हें देख कर स्निग्ध चाँदनी भी जो बरसावे रवि! तुम सौरभ सी सहज मधुर बरबस बस जाती मन में पतझर में लाती वसंत, रस स्रोत विरस जीवन में तुम प्राणों में प्रणय गीत बन जाती उर कंपन में! तुम देही हो? दीपक लौ सी दुबली कनक छबीली मौन मधुरिमा भरी, लाज ही सी साकार लजीली, तुम नारी हो? स्वप्न कल्पना सी सुकुमार सजीली? तुम्हें देखने शोभा ही ज्यों लहरी सी उठ आईं तनिमा, अंग भंगिमा बन मृदु देही बीच समाई! कोमलता कोमल अंगों में पहिले तन धर पाई! फूल खिल उठे तुम वैसी ही भू को दी दिखलाई, सुंदरता वसुधा पर खिल सौ सौ रंगों में छाई छाया सी ज्योत्स्ना सकुची, प्रतिछबि से उषा लजाई! तुम में जो लावण्य मधुरिमा जो असीम सम्मोहन, तुम पर प्राण निछावर करने पागल हो उठता मन! नहीं जानती क्या निज बल तुम, निज अपार आकर्षण? बाँध लिया तुमने प्राणों को प्रणय स्वप्न बंधन में, तुम जानो, क्या तुमको भाया मर्म छिपा क्या मन में, इन्द्र धनुष बन हँसती तुम वाष्पों के जीवन घन में!

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