स्वप्न देही
स्वप्न देही हो प्रिये हो तुम, देह तनिमा अश्रु धोई! रूप की लौ सी सुनहली दीप में तन के सँजोई! सेज पर लेटी सुघर सौन्दर्य छाया सी सुहाई काम देही स्वप्न सी स्मृति तल्प पर तुम दी दिखाई! कल्पना की मधुरिमा सी भाव मृदुता में डुबोई! देह में मृदु देह सी उर में मधुर उर सी समाकर, लिपट प्राणों से गई तुम चेतना सी निपट सुन्दर! प्रेम पलकों पर अकल्पित रूप की सी स्वप्न सोई! विरल पट से झलक विलुलित अलक करते हृदय मोहित, सरित जल में तैरती ज्यों नील पल छाया तरंगित! काम वन में प्रणय ने हो कामना की ज्योति बोई! लालसा तम से तुम्हारे कुंतलों के जाल में भ्रम क्यों न होता प्यार अंधा छबि अपार निहार निरुपम! मर्म की आकुल तृषा तुम प्रणय श्वासों में पिरोई! स्नेह प्रतिमा सी मनोरम मर्म इच्छा से विनिर्मित, हृदय शतदल में सतत तुम झूलती अभिलाष स्पंदित! सार तत्वों की बनी तुम देह भूतों बीच खोई!

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