गोपन
मैं कहता कुछ रे बात और! जग में न प्रणय को कहीं ठौर! प्राणों की सुरभि बसी प्राणों में बन मधु सिक्त व्यथा, वह नीरव गोपन मर्म मधुर वह सह न सकेगी लोक कथा। क्यों वृथा प्रेम आया जग में सिर पर काँटों का धरे मौर! मैं कहता कुछ रे बात और! सौन्दर्य चेतना विरह मूढ़, मधु प्रणय भावना बनी मूक, रे हूक हृदय में भरती अब कोकिल की नव मंजरित कूक! काले अंतर का जला प्रेम लिखते कलियों में सटे भौंर! मैं कहता कुछ, रे बात और!

Read Next