दिवा स्वप्न / स्वर्णधूलि
मेघों की गुरु गुहा सा गगन वाष्प बिन्दु का सिंधु समीरण! विद्युत् नयनों को कर विस्मित स्वर्ण रेख करती हँस अंकित हलकी जल फुहार, तन पुलकित स्मृतियों से स्पंदित मन हँसते रुद्र मरुतगण! जग, गंधर्व लोक सा सुंदर जन विद्याधर यक्ष कि किन्नर, चपला सुर अंगना नृत्यपर— छाया का प्रकाश घन से छन स्वप्न सृजन करता घन! ऐसा छाया बादल का जग हर लेता मन, सहज क्षण सुभग! भाव प्रभाव उसे देते रँग! उर में हँसते इन्द्र धनुष क्षण, सृजन शील यह सावन!

Read Next