नरक में स्वर्ग
(१) गत युग के जन पशु जीवन का जीता खँडहर वह छोटा सा राज्य नरक था इस पृथ्वी पर। कीड़ों से रेंगते अपाहिज थे नारी नर मूल्य नहीं था जीवन का कानी कौड़ी भर! उसे देख युग युग का मन कर उठता क्रंदन हाय विधाता, यह मानव जीवन संघर्षण!! जग के चिर परिताप वहाँ करते थे कटु रण, वह नृशंसता, द्वेष कलह का था जड़ प्रांगण। झाड़ फूस के भग्न घरोंदों में लहराकर हरी भरी गाँवों की धरती उठ ज्यो ऊपर। राज भवन के उच्च शिखर से उठा शास्ति कर इंगित करती थी अलक्ष्य की ओर निरंतर। उस अलक्ष्य में युग भविष्य जो था अंतर्हित वह यथार्थ था जितना मन में उतना कल्पित। बाहर से थी राय प्रजा हो रही संगठित, भीतर से नव मनुष्यत्व गोपन में विकसित। (२) राज महल के पास एक मिट्टी के कच्चे घर में रहती थी मालिन की लड़की क्षुधा विदित पुर भर में। मौन कुईं सी खिली गाँव के ज्यों निशीथ पोखर में वह शशि मुखी सुधा की थी सहचरी हर्ग्य अंबर में। नव युवती थी फूलों के मृदु स्पर्शों से पोषित तन, सहज बोध के सलज वृत्त पर विकसित सौरभ का मन। मुग्ध कली वह जग मादन वसंत था उसका यौवन, भावों की पंखड़ियों पर रंजित निसर्ग सम्मोहन। उसके आँगन में आ ऊषा स्वर्ण हास बरसाती, राजकुमारी सुधा द्वार पर खड़ी नित्य मुसकाती दोनों सखियाँ उपवन में जा फूलों में मिल जातीं इन्द्र चाप के रंगों में ज्यों इन्दु रश्मि रिल जातीं। कोमल हृदय सुधाका था चिर विरह गरल से तापित जननि जनक की इच्छा से थी प्रणय भावना शासित। फूलों का तन मधुर क्षुधा का मधुप प्रीति से शोषित, राजकुमार अजित की थी वह स्वप्न संगिनी अविजित। पंकजिनी थी क्षुधा, पंक में खिली दैन्य के निश्वय, स्वर्ण किरण थी सुधा धरा की रज पर उतरी सहृदय। दोनों के प्राणों का परिणय था जन के हित सुखमय, स्वर्ग धरा का मधुर मिलन हो ज्यों स्रष्टा का आशय। दोनों सखियाँ मिल गोपन में करतीं मर्म निवेदन, दोनों की दयनीय दशा बन गई स्नेह दृढ़ बंधन! जीवन के स्वप्नों का जीवन की स्थितियों से आ रण, तन मन की था क्षुधा बढ़ाता ईंधन बन नव यौवन! कितने ऐसे युवति युवक हैं आज नहीं जो कुंठित, जिनकी आशा अभिलाषा सुख स्वप्न नहीं भू लुंठित। भीतर बाहर में विरोध जब बढ़ता है अनपेक्षित तब युग का संचरण प्रगति देता जीवन को निश्चित! (३) राजभवन हे राजभवन, जन मन के मोहन, युग युग के इतिहास रहे तुम भू के जीवन! संस्कृति कला विभव के स्वप्नों से तुम शोभन पृथ्वी पर थे स्वर्गिक शोभा के नंदनवन! मदिर लोचनों से गवाक्ष थे मुग्ध कुवलयित, मधुर नूपुरों की कलध्वनि से दिशि पल गुंजित। नव वसंत के तुम शाश्वत विलास थे कुसुमित भू मंडल की विद्या के प्रकाश से ज्योतित। हाय, आज किन तापों शापों से तुम पीड़ित विस्फोटक बन गए धरा के उर के निन्दित। जन गण के जीवन से तुम न रहे संबंधित अहम्मभयत्ता, धन मद, मति जड़ता में मज्जित। अब भी चाहो पा सकते तुम जन मन पूजन जन मंगल के लिए करो जो विभव समर्पण! जन सेवा व्रत के चिर ब्रती रहो तुम दृढ़पण, संस्कृति ज्ञान कला का करना सीखो पोषण! तंत्र मात्र से हो सकते न मनुज परिचालित उनके पीछे जब तक हो न चेतना विकसित। प्रजा तंत्र के साथ राज्य रह सकते जीवित जन जीवन विकास के नियमों से अनुशासित! (४) इन्क़लाब के तुमल सिन्धु-सा एक रोज हो उठा तरंगित वह छोटा सा राज्य क्रुद्ध जनता के आवेशों से नादित। थी अग्रणी क्षुधा के कर में रक्त ध्वजा ज्वाला सी कंपित, काल पड़ा था, क्षुब्ध प्रजा को था लगान भरना अस्वीकृत। बल प्रयोग था किया राज्य ने जनमत का कर प्रजा संगठन राजभवन को घेर अड़ी थी, सत्वों के हित देने जीवन। हाथ क्षुधा का पकड़े था श्रम उसका प्रिय साथी, प्रेमी जन द्वेष शिखा का शलभ अजित था देख रहा उनको सरोष मन। देख रही थी क्षुधा खोल किंचित् अंतःपुर का वातायन उसे विदित था सोदर के मन में जो था चल रहा इधर रण। दोनों सखियों के नयनों ने मिलकर मौन किया संभाषण दोनों के उर में था आकुल स्पंदन आँखों में आँसू बन! हार गए थे भूप मनाकर, बात प्रजा ने एक न मानी सह सकती थी, सच है, जनता और न शासन की मनमानी। छोड़ भार युवराज पर सकल थे निश्चिंत नृपति अभिमानी कुपित अजित ने जन विद्रोह दमन करने की मन में ठानी। पा उसका संकेत सैनिकों ने, जो रहे सशस्त्र घेर कर अग्नि वृष्टि कर दी जनगण थे मृत्यु कांड के लिए न तत्पर। प्रबल प्रभंजन से सगर्व ज्यों आलोड़ित हो उठता सागर क्रंदन गर्जन की हिल्लोलें उठने गिरने लगीं धरा पर! खिन्न धरित्री पीती थी निज रस से पोषित मानव शोणित पृष्ठ द्वार से निकल सुधा हो गई भीड़ में उधर तिरोहित। लाल ध्वजा को लक्ष्य बना निज इधर अजित ने हो उत्तेजित मृत्यु व्याल दी उगल क्षुधा पर प्रीति बन गई द्वेष की तड़ित। ‘हाय, सुधा! हा, राजकुमारी!’ दशों दिशा हो उठी ज्यों ध्वनित, ‘सुधे, सखी, प्राणों की प्यारी! वज्र गिरा यह हम पर निश्चित!’ ‘ओ जन मानस राज हंसिनी तुमने प्राण दिए जनगण हित, वैभव की तज तेज हाय तुम धरा धूलि पर आज चिर शयित!!! हलचल क्रंदन कोलाहल से राजमहल हिल उठा अचानक! देखा सबने क्षुधा अंक में राजकुमारी सोई अपलक! अश्रु अजस्र क्षुधा के उसको पहनाते थे स्नेह विजय स्रक्, उसने ली थी छीन सखी से रक्त जिह्वध्वज मृत्यु भयानक! रोते थे नरेश विस्मृत से, रानी पास खड़ी थी मूर्छित, किंकर्तव्य विमूढ़ खड़ा था अजित अवाक् शून्य जीवन्मृत। नत मस्तक थे नृप, घुटनों बल प्रजा प्रणत थी उभय पराजित, प्रीति प्रताड़ित हृदय सुधा का था निष्पंद प्रजा को अर्पित। देख अजित को आत्मघात के हित उद्यत विदीर्ण दुखकातर झपट क्षुधा से छीन लिया द्रुत शस्त्र हाथ से कह धिक् कायर! साश्रु नयन उस क्षुब्ध युवक के मुख से निकले सुधा सिक्त स्वर ‘सुधा आज से बहिन क्षुधा तुम, अजित विजित, जनगण का अनुचर! कथा मात्र है यह कल्पित उपचेतन से अतिरंजित, कहीं नहीं है राजकुमारी सुधा धरा पर जीवित। मनुजोचित विधि से न सभ्यता आज हो रही निर्मित, संस्कृत रे हम नाम मात्र को, विजयी हममें प्राकृत। आज सुधा है, शोषित श्रम है, नग्न प्रजा तम पीड़ित, प्रीति रहित है अजित काम, कामना न किंचित् विकसित। अभी नहीं चेतन मानव से भू जीवन मर्यादित, अभी प्रकृति की तमस शक्ति से मनुज नियति अनुशासित।

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