अतिम पैगम्बर
दूर दूर तक केवल सिकता, मृत्यु नास्ति सूनापन!— जहाँ ह्रिंस बर्बर अरबों का रण जर्जर था जीवन! ऊष्मा झंझा बरसाते थे अग्नि बालुका के कण, उस मरुस्थल में आप ज्योति निर्झर से उतरे पावन! वर्ग जातियों में विभक्त बद्दू औ’ शेख निरंतर रक्तधार से रँगते रहते थे रेती कट मर कर! मद अधीर ऊँटों की गति से प्रेरित प्रिय छंदों पर गीत गुनगुनाते थे जन निर्जन को स्वप्नों से भर! वहाँ उच्च कुल में जन्मे तुम दीन कुरेशी के घर बने गड़रिए, तुम्हें जान प्रभु, भेड़ नवाती थी सर! हँस उठती थी हरित दूब मरु में प्रिय पदतल छूकर प्रथित ख़ादिजा के स्वामी तुम बने तरुण चिर सुंदर! छोड़ विभव घर द्वार एक दिन अति उद्वेलित अंतर हिरा शैल पर चले गए तुम प्रभु की आज्ञा सिर धर दिव्य प्रेरणा से निःसृत हो जहाँ ज्योति विगलित स्वर जगी ईश वाणी क़ुरान चिर तपन पूत उर भीतर! घेर तीन सौ साठ बुतों से काबा को, प्रति वत्सर भेज कारवाँ, करते थे व्यापार कुरेश धनेश्वर उस मक्का की जन्मभूमि में, निर्वासित भी होकर किया प्रतिष्ठित फिर से तुमने अब्राहम का ईश्वर! ज्योति शब्द विधुत् असि लेकर तुम अंतिम पैग़म्बर ईश्वरीय जन सत्ता स्थापित करने आए भू पर! नबी, दूरदर्शी शासक नीतिज्ञ सैन्य नायक वर धर्म केतु, विश्वास हेतु तुम पर जन हुए निछावर! अल्ला एक मात्र है इश्वर और रसूल मोहम्मद’ घोषित तुमने किया तड़ित असि चमका मिटा अहम्मद! ईश्वर पर विश्वास प्रार्थना दास—संत की संपद, शाति धाम इस्लाम जीव प्रति प्रेम स्वर्ग जीवन नद। जाति व्यर्थ हैं सब समान हैं मनुज, ईश के अनुचर, अविश्वास औ’ वर्ग भेद से है जिहाद श्रेयस्कर! दुर्बल मानव, पर रहीम ईश्वर चिर करुणा सागर, ईश्वरीय एकता चाहता है इस्लाम धरा पर! प्रकृति जीव ही को जीवन की मान इकाई निश्वित प्राणों का विश्वास पंथ कर तुमने पभु का निर्मित। व्यक्ति चेतना के बदले कर जाति चेतना विकसित जीवन सुख का स्वर्ग किया अंतरतम नभ में स्थापित। आत्मा का विश्लेषण कर या दर्शन का संश्लेषण, भाव बुद्धि के सोपानों मे बिलमाए न हृदय मन। कर्म प्रेरणा स्फुरित शब्द से जन मन का कर शासन ऊर्ध्व गमन के बदले समतल गमन बताया साधन! स्वर्ग दूत जबरील तुम्हारा बन मानस पथ दर्शक तुम्हें सुझाता रहा मार्ग जन मंगल का निष्कंटक। तर्कों वादों और बुतों के दासों को, जन रक्षक प्राणों का जीवन पथ तुमने दिखलाया आकर्षक! एक रात में मृत मरु को कर तुमने जीवन चेतन पृथ्वी को ही प्रभु के शब्दों को कर दिया समर्पण। ‘मैं भी अन्य जनों सा हूँ!’ कह रह सबसे साधारण पावन तुम कर गए धरा को, धर्म तंत्र कर रोपण।

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