युगागम
आज से युगों का सगुण विगत सभ्यता का गुण, जन जन में, मन मन में हो रहा नव विकसित, नव्य चेतना सर्जित! आ रहा भव नूतन जानता जग का मन स्वर्ण हास्य मय नूतन भावी मानव जीवन, आनता अंतर्मन! जा रहा पुराचीन तर्जन कर गर्जन कर आ रहा चिर नवीन वर्षण कर, सर्जन कर! तमस का घन अपार, सूखी सृष्टि वृष्टि धार, गरजता,--अहंकार हृदय भार! हे अभिनव, भू पर उतर, रज के तम को छू कर स्वर्ण हास्य से भर दो, भू मन को कर भास्वर! सृजन करो नव जीवन, नव कर्म, वचन, मन!

Read Next