पतिता
रोता हाय मार कर माधव वॄद्ध पड़ोसी जो चिर परिचित, ‘क्रूर, लुटेरे, हत्यारे... कर गए बहू को, नीच, कलंकित!!’ ‘फूटा करम! धरम भी लूटा!’ शीष हिला, रोते सब परिजन, ‘हा अभागिनी! हा कलंकिनी!’ खिसक रहे गा गा कर पुरजन! सिसक रही सहमी कोने में अबला साँसों की सी ढेरी, कोस रहीं घेरी पड़ोसिनें, आँख चुराती घर की चेरी! इतने में घर आता केशव, ‘हा बेटा!’ कर घोरतर रुदन माँथा लेते पीट कुटुंबी, छिन्नलता सा कँप उठता तन! ‘सब सुन चुका’ चीख़ता केशव, ‘बंद करो यह रोना धोना! उठो मालती, लील जायगा तुमको घर का काला कोना! ‘मन से होते मनुज कलंकित, रज की देह सदा से कलुषित, प्रेम पतित पावन है, तुमको रहने दूँगा मैं न कलंकित!’

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