सामंजस्य
भाव सत्य बोली मुख मटका ‘तुम - मैं की सीमा है बंधन, मुझे सुहाता बादल सा नभ में मिल जाना, खो अपनापन! ये पार्थिव संकीर्ण हृदय हैं, मोल तोल ही इनका जीवन, नहीं देखते एक धरा है, एक गगन है, एक सभी जन!’ बोली वस्तु सत्य मुँह बिचका, ‘मुझे नहीं भाता यह दर्शन, भिन्न देह हैं जहाँ, भिन्न रुचि, भिन्न स्वभाव, भिन्न सब के मन! नहीं एक में भरे सभी गुण द्वन्द्व जगत में है नारी नर, स्नेही द्रोही, मूर्ख चतुर हैं, दीन धनी, कुरूप औ’ सुन्दर! आत्म सत्य बोली मुसका कर, ‘मुझे ज्ञात दोनों का कारण, मैं दोनों को नहीं भूलती, दोनों का करती संचालन!’ पंख खोल सपने उड़ जाते, सत्य न बढ़ पाता गिन गिन पग, सामंजस्य न यदि दोनों में रखती मैं, क्या चल सकता जग?

Read Next